नैतिकता एक सोच है, जो सामाजिक नियम-कायदों, परम्पराओं, रूढ़ियों से ऊपर उठकर सबके हित के बारे में सोचने पर विवश करती है। ये अक्सर हमारे
कथनों, कर्मों, आचार-व्यवहार में प्रदर्शित होती है।
पर आज हमारे सामाजिक परिदृश्य में बहुत बदलाव आ चुका है, हमारी कथनी व करनी में पूर्णतया अंतर होता जा रहा है। हम ये सोचने की कोशिश ही नहीं करते कि जो वस्तु / कर्म हमारे लिए उचित नहीं हैं वो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कैसे उचित हो सकता है। गलत तो हमेशा गलत ही होता है, चाहे वो किसी भी कारणवश या किन्हीं भी परिस्थितियों में क्यों न किया गया हो। अर्थात नैतिकता वही है जो हमें सत्य-असत्य, सही-गलत, धर्म-अधर्म का अंतर करना सिखाये।
हम मनुष्यों का स्वभाव होता है कि हम अपने द्वारा किये गए कर्मों का परिणाम नकारात्मक होने की स्थिति में उसका दोषारोपण दूसरों पर करने लगते हैं, पर यदि परिणाम सकारात्मक होता है तो उसका श्रेय स्वयं को देते हैं, दूसरों की ईमानदारी व परिश्रम को पूर्णतया नकारते हुए। हमारी यही सोच व कर्म हमें एक ऐसे मोड़ पर ले आते हैं, जहां से पीछे लौटना शायद संभव नहीं हो पाता। उस अवस्था में हम अपराधबोध से ग्रसित हो आत्मग्लानि महसूस करते हैं या अपने कर्मों का परिणाम भुगतते हैं।
उपरोक्त कथन को हम इस उदाहरण द्वारा स्पष्ट करना चाहेंगे –
जब एक स्त्री अपने अधिकारों व स्वतंत्रता के प्रति मुखर हो आवाज उठाती है तो उसे हर तरीके से रोकने का प्रयास किया जाता है, उसे सामाजिक मर्यादाओं का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि इसके बावजूद भी वो आवाज उठाती है तो उसपर अत्याचार की सारी सीमाएं तोड़कर व्याभिचार तक कराया जाता है। इस अकथनीय, असहनीय पीड़ा का दंश झेलने के लिए उसे छोड़ दिया जाता है अन्यथा उसे मार दिया जाता है।
तत्क्षण हम अपने द्वारा किये गए दुष्कर्मों का दोषारोपण उस स्त्री पर करने लगते हैं, कभी उसके कपड़ों पर कटाक्ष करके, या फिर उसके चरित्र का हनन करके। वे अपने अन्तर्मन में एक क्षण को भी झाँक कर नहीं देखते कि उनके द्वारा किये गए कर्मों की मलिनता उनके अन्दर की थी, न कि उसके कपड़ों या चरित्र की। वो ये सोचने का प्रयास ही नहीं करते कि उनके अन्दर वो ऐसी कौन सी सोच या प्रवृत्ति थी, या यूँ कहें मलिनता थी, जिसने उसे इतना बड़ा दुष्कर्म करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें उसे दूर करना चाहिए, न कि दूसरों पर दोषारोपण।
हम सिर्फ स्वयं का चरित्र-निर्माण कर सकते हैं, दूसरे तो सिर्फ आपके अनुगामी हो सकते हैं, जब वो आपको श्रेष्ठ, गुणवान, चरित्रवान समझेंगे तब।
जिस दिन हमारे अंतर्मन में भाव / सोच जागृत हो जायेंगे, हम अपनी कथनी व करनी में अंतर करना बंद कर देंगे, अपने द्वारा किये गए कर्मों के परिणाम (चाहे वो सकारात्मक हो या फिर नकारात्मक) को स्वयं स्वीकारेंगे, उसी क्षण हमारी कोरी नैतिकता, नैतिकता में परिवर्तित / परिलक्षित हो जायेगी।
कथनों, कर्मों, आचार-व्यवहार में प्रदर्शित होती है।
पर आज हमारे सामाजिक परिदृश्य में बहुत बदलाव आ चुका है, हमारी कथनी व करनी में पूर्णतया अंतर होता जा रहा है। हम ये सोचने की कोशिश ही नहीं करते कि जो वस्तु / कर्म हमारे लिए उचित नहीं हैं वो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए कैसे उचित हो सकता है। गलत तो हमेशा गलत ही होता है, चाहे वो किसी भी कारणवश या किन्हीं भी परिस्थितियों में क्यों न किया गया हो। अर्थात नैतिकता वही है जो हमें सत्य-असत्य, सही-गलत, धर्म-अधर्म का अंतर करना सिखाये।
हम मनुष्यों का स्वभाव होता है कि हम अपने द्वारा किये गए कर्मों का परिणाम नकारात्मक होने की स्थिति में उसका दोषारोपण दूसरों पर करने लगते हैं, पर यदि परिणाम सकारात्मक होता है तो उसका श्रेय स्वयं को देते हैं, दूसरों की ईमानदारी व परिश्रम को पूर्णतया नकारते हुए। हमारी यही सोच व कर्म हमें एक ऐसे मोड़ पर ले आते हैं, जहां से पीछे लौटना शायद संभव नहीं हो पाता। उस अवस्था में हम अपराधबोध से ग्रसित हो आत्मग्लानि महसूस करते हैं या अपने कर्मों का परिणाम भुगतते हैं।
उपरोक्त कथन को हम इस उदाहरण द्वारा स्पष्ट करना चाहेंगे –
जब एक स्त्री अपने अधिकारों व स्वतंत्रता के प्रति मुखर हो आवाज उठाती है तो उसे हर तरीके से रोकने का प्रयास किया जाता है, उसे सामाजिक मर्यादाओं का पाठ पढ़ाया जाता है। यदि इसके बावजूद भी वो आवाज उठाती है तो उसपर अत्याचार की सारी सीमाएं तोड़कर व्याभिचार तक कराया जाता है। इस अकथनीय, असहनीय पीड़ा का दंश झेलने के लिए उसे छोड़ दिया जाता है अन्यथा उसे मार दिया जाता है।
तत्क्षण हम अपने द्वारा किये गए दुष्कर्मों का दोषारोपण उस स्त्री पर करने लगते हैं, कभी उसके कपड़ों पर कटाक्ष करके, या फिर उसके चरित्र का हनन करके। वे अपने अन्तर्मन में एक क्षण को भी झाँक कर नहीं देखते कि उनके द्वारा किये गए कर्मों की मलिनता उनके अन्दर की थी, न कि उसके कपड़ों या चरित्र की। वो ये सोचने का प्रयास ही नहीं करते कि उनके अन्दर वो ऐसी कौन सी सोच या प्रवृत्ति थी, या यूँ कहें मलिनता थी, जिसने उसे इतना बड़ा दुष्कर्म करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें उसे दूर करना चाहिए, न कि दूसरों पर दोषारोपण।
हम सिर्फ स्वयं का चरित्र-निर्माण कर सकते हैं, दूसरे तो सिर्फ आपके अनुगामी हो सकते हैं, जब वो आपको श्रेष्ठ, गुणवान, चरित्रवान समझेंगे तब।
जिस दिन हमारे अंतर्मन में भाव / सोच जागृत हो जायेंगे, हम अपनी कथनी व करनी में अंतर करना बंद कर देंगे, अपने द्वारा किये गए कर्मों के परिणाम (चाहे वो सकारात्मक हो या फिर नकारात्मक) को स्वयं स्वीकारेंगे, उसी क्षण हमारी कोरी नैतिकता, नैतिकता में परिवर्तित / परिलक्षित हो जायेगी।