Monday, August 8, 2016

प्रकृति और हम

प्रकृति अर्थात् शक्ति जो हमारे जीवन को संचालित कर रही है, जिससे प्राप्त संसाधनों से हम पोषित हो रहे हैं चिरकाल से। इसका आवरण हमें
पोषण व संरक्षण दे रहा है।

परन्तु आज हम उसी प्रकृति को बदले मे क्या दे रहे हैं, अनादर, उसे प्रदूषित करके चाहे गंगा को मैला करके, चाहे वृक्षों को काटकर, चाहे कारखानों से निकलने वाले अपव्ययों का सही से निस्तारण न करके। शायद इसी वजह से प्रकृति अपना रोष प्रकट कर रही है मानो कह रही है कि अब भी संभल जाओ अन्यथा कुछ भी नहीं बचेगा न ये संसाधन जिसका तुम अत्यधिक खनन कर रहे हो और न ही तुम।

आज प्रकृति में मनुष्य के अत्यधिक लालच के कारण वृक्षों की संख्या दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। वृक्ष जो हमें वायु के रूप में जीवन, भोजन के रूप में पोषण व घर के रूप में संरक्षण प्रदान करते हैं हम उन्हीं को काटते जा रहे हैं। ऊंची-ऊंची इमारतें बनाने के लिए, कारखानों को स्थापित करने के लिए पूरे हरे-भरे क्षेत्र को बंजर बना रहे हैं किन्तु ये कब तक चलेगा, कहीं पर जाकर तो ये खत्म ही होगा, शायद हमारे अंत से ही क्योंकि यदि इसी प्रकार हम प्रकृति का अनादर करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हम खुद ही समय से पहले अपना अंत कर चुके होंगे।

यदि हमें अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छा स्वस्थ वातावरण रखना है तो वृक्षों को बचाना ही होगा। ये तो हम पर निर्भर करता है कि हम उनको क्या देना चाहते हैं, शुद्ध प्राकृतिक वातावरण या प्रदूषण गंदगी से भरा वातावरण जिसमे असंख्य बीमारियाँ हर पल उन्हें घेरे हुए हों। वृक्ष होंगे तभी वर्षा होगी, जल स्तर सामान्य होगा, तापमान भी सामान्य रहेगा। पोषण, हरियाली, खुशियाँ सब कुछ होगा।

इसके लिए कुछ खास करने की जरूरत नहीं है बस थोड़ा जागरूक होने की आवश्यकता है। हर व्यक्ति यदि अपने जीवन में दो से पाँच पेड़ लगाये व उन्हें पोषित करे तो भी पर्याप्त होगा और ये संकल्प ले कि वो जीवन पर्यंत इनका संरक्षण करेगा। इस तरह वो अपने हिस्से की ऑक्सीजन भी स्वयं बना सकेगा और प्रकृति को संरक्षित करने में अपना छोटा सा परंतु महत्वपूर्ण योगदान भी दे सकेगा। बस जरूरत है तो दृढ़ संकल्प की और यही दृढ़ संकल्प हमें और हमारी पृथ्वी को बचा सकता है इसलिए किसी और के लिए नहीं अपितु अपने लिए ही हमें ये करना ही होगा।